Friday, August 5, 2016

योग

योग शब्द संस्कृत की युज् धातु से बना है, जिसका तात्पर्य जुड़ना और समाधि है। महर्षि पतंजलि के अनुसार  ' चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है।'
      योग जीने की एक कला है। योग से शरीर और मन दोनों स्वस्थ होते है और आत्मानुभूति होती है। आत्म शक्ति का विकास होता है। योग जीव और ब्रह्म के मिलन का दूसरा नाम है। इससे मन को शांति मिलती है। शारीरिक एवं मानसिक रोग दूर होते है। 
      योग संपूर्ण विज्ञान है। इसकी प्रयोगशाला शरीर है। कोई भी इस प्रयोगशाला में प्रयोग करके अनुभव कर सकता है।
      गीता में योग को 'समत्वं योग उच्चते'और 'योग कर्मसु कौशलम्' कहा गया है। महर्षि चरक ने मन का आत्मा में स्थिर होंने को योग कहा  है। वास्तव में योग आत्मा का परमात्मा से मिलन का नाम है, किन्तु योग की सहायता से हम अपने शरीर को भी निरोग रख सकते हैं । इस प्रकार योग वह विज्ञानं है जो तन को उपयोगी बनाता है, आत्मा से परमात्मा के मिलन का मार्ग प्रशस्त करता है । 
   योग के दो रूप हैं - 1. बाह्यांतर और 2. आभ्यान्तर ।  बाह्यांतर का सम्बंध शरीर से है तथा आभ्यंतर का सम्बन्ध आत्मा से है । महर्षि पतंजलि ने योग  आठ अंग बताए हैं - यम,नियम,आसन,प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इसमें से प्रथम पॉँच बाह्यांतर योग की श्रेणी में रखे जा सकते है , शेष तीन को आभ्यान्तर योग की श्रेणी में रखा जा सकता है । इसका सीधा अर्थ है कि योग का सम्बंध हमारे शरीर और आत्मा दोनों से है । 


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